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व्यंग्य की सुरती से जीवन की भांग तक है तरह- तरह के डांस!
सुरती कभी खाई नहीं। भांग कभी चढी नहीं। चढ गई ज़ुबान पर एक धार जो कब अपने आप व्यंग्य बनती चली गई, इसकी छानबीन का काम मेरा नहीं। अपन तो बचपन में सभी की नकल करते, परसाई जी की गुड की चाय पीते- पढते समझने लगे थोडा बहुत कि 'मार कटारी मर जाना, ये अंखिया किसी से मिलाना ना!' हिमाकत देखिये कि 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर' पढते हुए और उसके बाद शरद जोशी के नवभारत टाइम्स में छपते 'प्रतिदिन' कॉलम का सबसे पहले पारायण करते हुए व्यंग्य को थोडा बहुत समझने लगे। थोडा- थोडा लिखने लगे तो मजा आने लगा। बोलने में भी व्यंग्य की एक छौंक लगने लग गई। साथी- सहयोगी वाह- वाह कर उठते तो अपने को अपनी कलम और घुटने में बस रहे दिमाग पर बडा...