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सृष्टि में मनुष्य स्वयं को सर्वोपरि मानता है व नियामक बनना चाहता है, इसी इच्छा के अंतर्गत उसने सभी प्रणियों को अपने आधिपत्य में ले लिया है, यह इच्छा समाज में आधिपत्य प्राप्त करने के लिए उसे स्थापित करने के लिए राज्य व राजा की जनक बनी, इसी एषणा के अंतर्गत मनुष्य परिवार में भी आधिपत्य चाहता है, परिवार का मुखिया चाहता है कि प्रत्येक सदस्य उसके चुने हुए मार्ग पर ही चले, इस एषणा की पूर्ति के लिए वह शेष की एषणाओं की आहुति देना चाहता है जो कुंठायें तो उत्पन्न करती ही है, उनकी सामर्थ्य को भी कुंद करता है, अनिच्छा से किए गए कार्य कभी सफलता प्रदान नहीं करते, इससे व्यक्तिगत हानि तो होती ही है, समाज की भी हानि होती है, प्रत्येक मनुष्य एक इकाई है और उसकी सामर्थ्य व इच्छा का मान रख कर यदि स्वतंत्रता प्रदान की जाए तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकते हैं, इसी विषय पर आधारित है "एक और सफर" उपन्यास, गुल्लू / गुलशन के पिता की इच्छा है गुलशन डॉक्टर या इंजीनियर या आई ए एस बने या फिर अपने पैतृक बागीचों को सम्भाले, लेकिन उसका मन नाटक इत्यादि में है और वह सिनेमा में जाना चाहता है, दोनों के अहंकार की टक्कर में गुलशन घर से भाग कर नये रास्ते नये मंज़िल की खोज में निकलता है, एक दूसरा लड़का किसी और क्षेत्र से गरीबी का हल खोजने के लिए शहर का रुख करता है, यह उपन्यास इनके संघर्ष और, एक और सफर की कहानी है, सुधीजन इसे स्वीकार कर अपना आशीर्वाद देंगे ऐसी आशा है, इन्हीं भावनाओं के अंतर्गत यह उपन्यास आप सभी पाठकों को समर्पित है, हार्दिक आभार व शुभकामनाएँ. जयनारायण कश्यप.