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About the book:
इस संग्रह की ग़ज़लों की भाषा हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब की नुमाइंदगी करने वाली आम बोलचाल की उर्दू मिश्रित हिंदी ही है । अरबी फारसी शब्दों से बोझिल पांडित्य पूर्ण भाषा के प्रदर्शन से उन्होंने परहेज किया गया है इसलिए ये ग़ज़लें आम पाठक के लिए सहज संप्रेषणीय हैं । हिंदी उर्दू शब्दों का कृत्रिम विभाजन या हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल का वाक्युद्ध इनमें नहीं है । डॉ. रंजना वर्मा स्वप्निल संसार की मुगालते भरी दुनिया में नहीं रहतीं । यथार्थ के कठोर धरातल से उनकी शायरी रूबरू कराती है । इस लिहाज से वे परंपरावादी नहीं पर्याप्त प्रगति शील शायरा हैं । सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं तथा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाती हैं । उन्हें जिंदगी की तल्ख़ियों का एहसास है और गमे-जानाँ ही नहीं गमे-दौराँ भी उनकी शायरी में मौजूद है ।