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'दीप शिखा' कहानी-संग्रह को पढने के बाद मुझे प्रतीत हुआ कि मानव जीवन के दुःख-दैन्य के कारण-बीज अधिकतर हमारी पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा मध्य युगीन सामाजिक व्यवस्था में है| 'उधार का दूध' ,'उसने पीया है जहर', 'शरणार्थी', 'मरणोत्सव' आदि रचनाओं के अलावा, और व्यापक स्वरुप के दर्शन 'छोटी-बहू' में मिलते हैं| दीपशिखा, लेखिका की नवीण साधना का आशीर्वाद है| कला के कोमल फेन का मूल्य मानवीय संवेदन के स्वस्थ सौन्दर्य से अधिक है| यह मैं नहीं मानती, क्योंकि कला के अनेक रूप हैं , जिनसे वह मर्म को स्पर्श करती है| 'फ़तेह सिंह' शीर्षक कहानी की कुछ पंक्तियाँ, कल्पना एवं अलंकरणों रहित होकर भी अपनी कलात्मक क्षमता रखती हैं| लेखिका का यथार्थ, सामाजिक जीवन के साथ संघर्ष करता हुआ,विकासशील, आशा-क्षमतापूर्ण मनुष्य को आगे बढ़ानेवाला व्यापक यथार्थ है| इसमें लोक- मांगल्य के नव अंकुरित बीज मिलते हैं|
एक ओर जहाँ, कुछ नये रचनाकारों की नई-नई कहानियाँ अपनी प्रयोगवादी सीमाओं को अतिक्रमण करने के प्रयत्न में , नवीन मानव मूल्यों की खोज में सामाजिक चेतना की वास्तविकता के घनत्व से हीन, एक भयानक शून्य में जहाँ भटक गई हैं| उनकी मानवता तथा लोक-मांगल्य से दूर का भी संबंध नहीं एवं मांगल्य की कसौटी पर कहीं से भी खड़ा नहीं उतरता|
ताराजी की कहानियाँ राजनीतिक दाँव-पेंचों का यथार्थ न होकर मानवीय तथा साहित्यिक यथार्थ होती हैं| इनकी कहानियाँ मनुष्य परिस्थितियों की निर्ममता को अपनी रीढ़ की हड्डी तोड़ने नहीं देती हैं , न ही आगे बढ़ पाने की लूँज-पुंज क्षोभ भरी वास्तविकता का चित्रण कर आत्मतृप्ति का अनुभव करती हैं| बल्कि ताराजी की कहानियाँ, यथार्थ सामाजिक जीवन के साथ संघर्ष करती हुई विकासशील मनुष्य को आगे बढ़ानेवाली होती हैं| जिसमें लोकमांगल्य के नव अंकुरित बीज मिलते हैं| अंत में मेरा यही कहना है कि डॉ. तारा सिंह का कहानी-संग्रह, एक उजाले भविष्य का सुन्दर स्वप्न है|