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'अंत में धर्म की विजय होती है।', ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि अन्तिम परिणाम को न्यायोचित ठहराया जा सके। वस्तुत: राजनीति में 'विजय ही धर्म' है। राजकुल में सत्ता ही सत्य, धर्म और नैतिकता है। जब हम इसका अवलोकन, महाभारत के सन्दर्भ में देखते हैं, तो सत्ता के कुचाल स्पष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाम पर, वचन के नाम पर, और राज्य की सुरक्षा के नाम पर जितने अधर्म कुरुवंश में किये गये, उसका अन्यत्र उदाहरण मिलना दुष्कर है। गंगापुत्र भीष्म - जिनके संरक्षण में द्रौपदी को परिवारी जनों के सामने नग्न करने का प्रयास किया गया, एकलव्य का अँगूठा कटवा लिया जाता है, दुर्योधन को एक उद्दण्ड, हठी चरित्र बनाकर घृणा का पात्र बना दिया जाता है, इतना बड़ा नरसंहार होता है, और कुरु कुल का विनाश हो जाता है, वह गंगापुत्र, काल के प्रश्नों सामने अधीर हैं, किन्तु काल के प्रश्न उनके शरीर में बाणों की तरह धँसे हैं, जिनका उत्तर उन्हें देना ही है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें, कि धर्म की ओर कौन सा पक्ष था। दरबारी इतिहासकारों द्वारा जो लिखा होता है, वह मात्र सत्ता का महिमामण्डन होता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। सत्ता के इतर लिखने वालों को सत्ता समाप्त कर देती है, नहीं तो यह कैसे हो सकता है कि जयसंहिता में जो कुछ आठ हजार आठ सौ श्लोकों में लिखा गया, उसे बढ़ाकर, एक लाख श्लोक का महाभारत बना दिया जाता है। सत्ता द्वारा धर्म और सत्य को, जाने कितने क्षेपकों की दीवारों में चुनवा दिया गया। कुलप्रमुख धृतराष्ट्र और भीष्म के पूर्वाग्रहों में आश्चर्यजनक एकरूपता है| एक का दुर्योधन के प्रति, तथा दूसरे का पाण्डवों के लिए आग्रह है। 'बोलो गंगापुत्र!' में काल, अपने कपाल पर लिखे सत्य का साक्षात्कार भीष्म से कराता है। अबकी बार कुरुक्षेत्र में अर्जुन नहीं, बल्कि मृत्युजयी गंगापुत्र भीष्म दुविधाग्रस्त हैं, सवालों के घेरे में हैं। पुस्तक, संवाद के क्रम में है, जिसके द्वारा लेखक ने सामान्य लौकिक मानवीय प्रश्नों को अत्यंत सहजता से उठाया है, और उसके सरलतम उत्तर भी पात्रों के माध्यम से देने का प्रयास किया है।