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प्रभात का समय। सूर्य की सुनहरी किरणें खेतों और वृक्षों पर पड़ रही हैं। वृक्षपुंजों में पक्षियों का कलरव हो रहा है। बसंत ऋतु है। नई-नई कोपलें निकल रही हैं। खेतों में हरियाली छाई हुई है। कहीं-कहीं सरसों भी फूल रही है। शीत-बिंदु पौधों पर चमक रहे हैं।हलधर : अब और कोई बाधा न पड़े तो अबकी उपज अच्छी होगी। कैसी मोटी-मोटी बालें निकल रही हैं।राजेश्वरी : यह तुम्हारी कठिन तपस्या का फल है।हलधर : मेरी तपस्या कभी इतनी सफल न हुई थी। यह सब तुम्हारे पौरे की बरकत है।राजेश्वरी : अबकी से तुम एक मजूर रख लेना। अकेले हैरान हो जाते हो।हलधर : खेत ही नहीं है। मिलें तो अकेले इसके दुगुने जोत सकता हूँ।राजेश्वरी : मैं तो गाय जरूर लूंगी। गऊ के बिना घर सूना मालूम होता है।हलधर : मैं पहले तुम्हारे लिए कंगन बनवाकर तब दूसरी बात करूंगा। महाजन से रूपये ले लूंगा। अनाज तौल दूंगा।राजेश्वरी : कंगन की इतनी क्या जल्दी है कि महाजन से उधर लो।अभी पहले का भी तो कुछ देना है।हलधर : जल्दी क्यों नहीं है। तुम्हारे मैके से बुलावा आएगा ही। किसी नए गहने बिना जाओगी तो तुम्हारे गांव-घर के लोग मुझे हंसेंगे कि नहीं ?राजेश्वरी : तो तुम बुलावा फेर देना। मैं करज लेकर कंगन न बनवाऊँगी। हां, गाय पालना जरूरी है। किसान के घर गोरस न हो तो किसान कैसा तुम्हारे लिए दूध-रोटी का कलेवा लाया करूंगी। बड़ी गाय लेना, चाहे दाम कुछ बेशी देना पड़ जाए।हलधर : तुम्हें और हलकान न होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन आराम कर लो, फिर तो यह चक्की पीसनी ही है।राजेश्वरी : खेलना-खाना भाग्य में लिखा होता तो सास-ससुर क्यों सिधार जाते ? मैं अभागिन हूँ। आते-ही-आते उन्हें चट कर गई। नारायण दें तो उनकी बरसी धूम से करना।हलधर : हां, यह तो मैं पहले ही सोच चुका हूँ, पर तुम्हारा कंगन बनना भी जरूरी है। चार आदमी ताने देने लगेंगे तो क्या करोगी ?राजेश्वरी : इसकी चिंता मत करो, मैं उनका जवाब दे लूंगी लेकिन मेरी तो जाने की इच्छा ही नहीं है। जाने और बहुएं कैसे मैके जाने को व्याकुल होती हैं, मेरा तो अब वहां एक दिन भी जी न लगेगी। अपना घर सबसे अच्छा लगता है। अबकी तुलसी का चौतरा जरूर बनवा देना, उसके आस-पास बेला, चमेली, गेंदा और गुलाब के फूल लगा दूंगी तो आंगन की शोभा कैसी बढ़ जाएगी!हलधर : वह देखो, तोतों का झुंड मटर पर टूट पड़ा।राजेश्वरी : मेरा भी जी एक तोता पालने को चाहता है। उसे पढ़ाया करूंगी।हलधर गुलेल उठाकर तोतों की ओर चलाता है।राजेश्वरी : छोड़ना मत, बस दिखाकर उड़ा दो।हलधर : वह मारा ! एक फिर गया।राजेश्वरी : राम-राम, यह तुमने क्या किया? चार दानों के पीछे उसकी जान ही ले ली। यह कौन-सी भलमनसी है ?हलधर : (लज्जित होकर) मैंने जानकर नहीं मारा।राजेश्वरी : अच्छा तो इसी दम गुलेल तोड़कर फेंक दो। मुझसे यह पाप नहीं देखा जाता। किसी पशु-पक्षी को तड़पते देखकर मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं। मैंने तो दादा को एक बार बैल की पूंछ मरोड़ते देखा था, रोने लगी। तब दादा ने वचन दिया कि अब कभी बैलों को न मारूंगा। तब जाके चुप हुई मेरे गांव में सब लोग औंगी से बैलों को हांकते हैं। मेरे घर कोई मजूर भी औंगी नहीं चला सकता।