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श्री एस. के. चौबे नियमों से जीते हैं। एक अनुभवी नौकरशाह के रूप में, उनका मानना है कि हर समस्या का समाधान एक अच्छी तरह से लिखी गई फाइल और एक उचित प्रक्रिया में निहित है। इसलिए, जब उन्हें दिल्ली के सबसे गुमनाम और बेतुके विभाग—'राष्ट्रीय निद्रा मंत्रालय'—का प्रमुख नियुक्त किया जाता है, तो वह इसे भी एक और चुनौती के रूप में लेते हैं। उनका मिशन, जैसा कि उनके आलसी लेकिन दार्शनिक रूप से चतुर संयुक्त सचिव जोशी जी ने समझाया है, सरल है: एक विशाल बजट को ख़र्च करना ताकि मंत्रालय जीवित रह सके।
लेकिन चौबे की आत्मा हर उस चीज़ के ख़िलाफ़ विद्रोह करती है जो निरर्थक है। असफल होने और अपने पुराने, अनुमानित जीवन में लौटने के एक हताश प्रयास में, वह जानबूझकर बेतुकी परियोजनाओं का प्रस्ताव करते हैं। लेकिन उनकी हर विफलता एक शानदार सफलता में बदल जाती है। जब वह ध्वनि प्रदूषण का अध्ययन करने का सुझाव देते हैं, तो उसे 'बहुत छोटा' कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है। जब वह सरकारी इमारतों को एक ही, उबाऊ बेज रंग में रंगने का एक निंदक प्रस्ताव देते हैं, तो उसे एक "दूरदर्शी मास्टरस्ट्रोक" के रूप में सराहा जाता है। जब एक राष्ट्रीय संकट उनकी परियोजना को खतरे में डालता है, तो उनका सबसे पागलपन भरा समाधान—सहारा की रेत को गंगा जल के साथ मिलाकर एक "देशभक्तिपूर्ण" पेंट बनाना—उन्हें एक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और एक राष्ट्रीय नायक का दर्जा दिलाता है।
महत्वाकांक्षी प्रतिद्वंद्वी मीनाक्षी दास और एक युवा, आदर्शवादी पत्रकार आदित्य मेहरा की नज़रों के बीच, चौबे को अपनी ही सफलता के बोझ के नीचे दबते हुए, सत्ता के गलियारों में नेविगेट करना होगा। जैसे-जैसे उनकी रचनाएँ और भी ज़्यादा भव्य और तर्कहीन होती जाती हैं, चौबे को एक भयानक सच्चाई का सामना करना पड़ता है: एक ऐसे सिस्टम में जो पूरी तरह से पागल है, शायद सबसे समझदार व्यक्ति वह है जो सबसे बड़ा पागल होने का नाटक करता है। "निष्क्रिय मामलों का मंत्रालय" एक तीखा, हास्यपूर्ण और अंततः मार्मिक व्यंग्य है जो यह पूछता है: एक टूटी हुई दुनिया में एक अच्छा आदमी बने रहने का क्या मतलब है?